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नेहरू पर्वतारोहण संस्थान: प्रशासनिक अनदेखी और बिखरती साख?

नेहरू पर्वतारोहण संस्थान: प्रशासनिक अनदेखी और बिखरती साख?

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साहसिक खेलों में देश को गौरवान्वित करने वाला संस्थान आज खुद प्रशासनिक ढिलाई का शिकार होता दिख रहा है

उत्तरकाशी। उत्तरकाशी स्थित देश का गौरव, नेहरू पर्वतारोहण संस्थान (NIM), जो पर्वतारोहण और साहसिक खेलों में देश को गौरवान्वित करता रहा है, आज खुद अंदरूनी अव्यवस्था और प्रशासनिक ढिलाई का शिकार होता दिख रहा है। वर्षों से प्रतीक्षित संग्रहालय का उद्घाटन नहीं हो पाना, और संस्थान में जारी आंतरिक खींचतान, कई गंभीर सवाल खड़े करती है।

 

संग्रहालय निर्माण पर करोड़ों रुपये खर्च हो चुके हैं — निर्माण के लिए 3.77 करोड़ की स्वीकृति पहले ही दी जा चुकी थी। इसके बावजूद, बिना किसी निविदा आमंत्रण के अतिरिक्त करोड़ों का खर्च दर्शाया गया, और अब तक इसका उद्घाटन अधर में लटका हुआ है। क्या यह मात्र प्रशासनिक असमर्थता है, या इसके पीछे कोई गहरा नेटवर्क काम कर रहा है?

 

संस्थान के पूर्व प्रधानाचार्य कर्नल अंशुमना भदौरिया एक कर्मठ और ईमानदार अधिकारी माने जाते रहे हैं। लेकिन उनके स्वास्थ्य कारणों से अनुपस्थित रहने के बाद संस्थान में जो हालात बने हैं, वे चिंताजनक हैं। वर्तमान में संग्रहालय संरक्षक विशाल रंजन, जो वर्ष 2005 में तृतीय श्रेणी कर्मचारी के रूप में नियुक्त हुए थे, संस्थान के कई प्रमुख पदों का जिम्मा संभालते रहे हैं — संग्रहालय संरक्षक, लोक सूचना अधिकारी, रजिस्ट्रार जैसे पदों का एक साथ संचालन कहीं न कहीं संस्थान की कार्यप्रणाली पर प्रश्नचिह्न लगाता है।

 

विशाल रंजन द्वारा संविदा और दैनिक वेतन भोगी कर्मचारियों को मनमाने वेतन – ₹8,000 से ₹55,000 तक – देना, बिना किसी स्पष्ट शासनादेश के, नियमों की खुलेआम अवहेलना है। यह स्थिति केवल आर्थिक गड़बड़ी की ओर ही नहीं, बल्कि संस्थान के अंदर एक समानांतर प्रशासनिक व्यवस्था के पनपने की ओर भी इशारा करती है।

 

हाल ही में प्रधानाचार्य की अनुमति के बिना कर्मचारियों के तबादले किए गए — ऐसा प्रतीत होता है कि संविदा पदों को ‘स्थायी कुर्सियों’ में बदलने की तैयारी है। क्या यह संस्थान के अंदरूनी तंत्र में ‘अपने लोगों’ को बैठाने की कवायद है?

सूत्रों के अनुसार, यदि संस्थान का संचालन तृतीय श्रेणी कर्मचारियों के हाथ में ही रहता है, तो नेहरू पर्वतारोहण संस्थान का भविष्य कितना सुरक्षित है, यह सोचने की बात है।

 

हालांकि, संस्थान को अभी भी बचाया जा सकता है। वर्तमान में कर्नल हेमचंद को NIM का अतिरिक्त प्रभार दिया गया है। वे एक ईमानदार और साफ छवि वाले अधिकारी माने जाते हैं। यदि वे चाहें, तो संस्थान में स्थानांतरण व नियुक्ति की गड़बड़ियों को नियंत्रित कर सकते हैं, और NIM की गरिमा को फिर से स्थापित कर सकते हैं।

 

लेकिन दुर्भाग्यवश, जब उन्होंने कुछ कर्मचारियों के स्थानांतरण के आदेश जारी किए, तो NIM के कुछ उच्च अधिकारियों ने उनकी अनदेखी कर दी और अपने स्तर पर अदला-बदली कर दी। इसका नतीजा यह हुआ कि आज NIM का स्टाफ दो धड़ों में बंट चुका है — एक गंभीर प्रशासनिक संकट की ओर संकेत करता हुआ।

नेहरू पर्वतारोहण संस्थान को बचाने के लिए अब गंभीर और पारदर्शी हस्तक्षेप की आवश्यकता है। यह संस्थान केवल उत्तरकाशी या उत्तराखंड की धरोहर नहीं है, यह राष्ट्रीय महत्व का केंद्र है। यदि समय रहते कार्रवाई नहीं हुई, तो यह संस्थान भी प्रशासनिक विफलता का एक और उदाहरण बनकर रह जाएगा।

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