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आवारा कदम अनजान रास्ते” — हिमालय, मनुष्य और स्मृति का महाग्रंथ

आवारा कदम अनजान रास्ते” — हिमालय, मनुष्य और स्मृति का महाग्रंथ

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 देहरादून। 4 अक्टूबर 2025 को दून लाइब्रेरी एवं शोध संस्थान में साहित्यकार शूरवीर रावत की नवीनतम कृति “आवारा कदम अनजान रास्ते” का लोकार्पण हुआ। कार्यक्रम में जाने -माने पत्रकार व लेखक जय सिंह रावत, संस्कृति के जानकार नंदकिशोर हटवाल, शिक्षाविद शिव प्रसाद सेमवाल और शीशपाल गुसाईं मुख्य वक्ता रहे। अवसर केवल पुस्तक-प्रस्तुति नहीं, बल्कि उत्तराखंड की लोक-संस्कृति, पर्यावरण-संवेग और सामुदायिक स्मृति का सामूहिक उत्सव बन गया। इस कृति को काव्यांश प्रकाशन ऋषिकेश ने प्रकाशित किया है।

पुस्तक-परिचय: यात्रा से आगे, आत्मा तक

यह कृति मात्र यात्रा-वृत्तांत नहीं; यह मनुष्य और प्रकृति के शाश्वत संवाद का दस्तावेज़ है। हिमालय की विराट देह—कश्मीर, लद्दाख, सिक्किम, दार्जिलिंग, हिमाचल और उत्तराखंड—में फैली बीस यात्राएँ लेखक की भीतरी यात्रा से एकाकार होती हैं। शीर्षक—“आवारा कदम अनजान रास्ते”—स्वच्छंदता, अन्वेषण और सहज-आत्मज्ञान का काव्यात्मक घोष है: वे रास्ते जो बाहर भी हैं और भीतर भी—अवचेतन में, स्मृतियों में, लोकगीतों और लोकगाथाओं में।

संरचना सुघटित और प्रवाहपूर्ण है। ‘मर्ग बोले तो बुग्याल’, ‘ऊँचे दरों वाली भूमि—लद्दाख’, ‘आस्था की बात—नन्दा राजजात’, ‘गंगा किनारे—फिर भी प्यासे’ जैसे अध्याय स्वतंत्र भी हैं और समष्टि-भाव में एक ही सांस्कृतिक वितान बुनते हैं। हर अध्याय नया परिदृश्य नहीं, नया प्रश्न भी रखता है—मनुष्य, प्रकृति और समाज के संबंधों पर।

शैली और सौंदर्य-बोध में लोक-रस, दार्शनिकता और काव्यमय संवेदना का सधा हुआ संतुलन है। भाषा सरल होते हुए भी गहनानुभूति से भीगी है—जहाँ हवा की सरसराहट, देवदार की गंध और नदी की फुसफुसाहट पाठक तक पहुँचती है। दलाई लामा का कथन—“धरती एक किताब है; जो यात्रा नहीं करते, वे उसका केवल एक पृष्ठ पढ़ते हैं”—कृति का अंतःस्वर बनकर बार-बार प्रतिध्वनित होता है।

कुछ अध्यायों पर सूक्ष्म दृष्टि

(1) सतपुली: त्रासदी से सामाजिक पुनर्जन्म (पृष्ठ 230)

रावत का सतपुली-वर्णन भूगोल या इतिहास का पुनर्लेख नहीं, सामुदायिक स्मृति का साक्ष्य है। 1951 की नयार बाढ़ केवल आपदा नहीं, पीढ़ियों के मानस पर अंकित वह स्थायी दाग है, जिसे लोकसंगीत ने सांस्कृतिक पहचान में रूपांतरित किया। चन्द्रसिंह राही जैसे ऋषि-स्वर गायकों ने उस पीड़ा को सुरों में ढालकर, दुःख को सामूहिक स्मृति-पूँजी बना दिया। पाठ में सतपुली गाँव से कस्बा बनने की दास्तान भी है—जहाँ बाज़ार की आभा और पलायन की टीस साथ-साथ चलती है। रावत का कथ्य सटीक है क्योंकि वह सतपुली की आत्मा को शब्द देता है—केवल दृश्य नहीं, ध्वनियाँ और धड़कनें भी दर्ज करता है।

(2) टिहरी झील से ब्रह्मपुत्र तक: विस्थापन का तुलनात्मक नैरेटिव (पृष्ठ 191)

लेखक टिहरी की स्मृतियों को असम की ब्रह्मपुत्र नदी और माजुली के क्षय से जोड़ते हैं। निष्कर्ष मार्मिक है—दुःख एक है, भले कारण भिन्न हों: ब्रह्मपुत्र का आघात प्रकृति-जनित, जबकि टिहरी-तटों का दर्द मानव-निर्मित। टिहरी के छात्र-जीवन की निजी स्मृतियाँ पाठ को विश्वसनीयता देती हैं। बार्ज/स्टीमर और पुल-व्यवस्था की तुलनाएँ केवल यात्रा-सुविधा का विमर्श नहीं, विकास की नैतिकता पर प्रश्न हैं—राजनीति और प्रशासन से ईमानदार बुनियादी ढाँचे की माँग। यह अध्याय व्यक्तिगत संस्मरण, सामाजिक यथार्थ और सांस्कृतिक जोड़ का अद्भुत संगम है।

(3) “कश्मीर: मर्ग बोले तो बुग्याल” — भय, साहस और सौन्दर्य (आरम्भ: पृ. 25 के आस-पास)

कोविड-परवर्ती भय के धुँधलके में लेखक कश्मीर पहुँचते हैं। श्रीनगर के मुगल-बाग़, चिनार की छाँह, डल झील का दर्पण—और पहलगाम, गुलमर्ग, सोनमर्ग की ढलानों पर उन्हें अपने उत्तराखंड के बुग्याल याद आते हैं—जहाँ घास हवा में बोलती है और पहाड़ कविता बन जाते हैं।
एक सच्चाई वे स्पष्ट करते हैं: “आम कश्मीरी आतंक नहीं, अमन चाहता है।” ड्राइवर हिलाल के शब्द—रोज़गार, पर्यटक और जलते चूल्हे—घाटी की बड़ी हक़ीक़त हैं। केसर की क्यारियाँ, अखरोट-सेब के बाग़, विलौ की लकड़ी से बने क्रिकेट बैट, शंकराचार्य से झील का विहंगम दृश्य—ये सब मिलकर कश्मीर को “धरती का स्वर्ग” के साथ-साथ संघर्ष और उम्मीद की जीवित धरती बनाते हैं।

(4) “प्रेम कहानी का साक्षी—बाड़ाहाट” (पृष्ठ 187): नरू–बिजोला की अमर गाथा

रावत लिखते हैं—“किसी स्थान की पहचान नक़्शे से नहीं, उसकी लोकगाथाओं से होती है।” उत्तरकाशी के ज्ञानसू और बाड़ाहाट की फिज़ा में आज भी नरू–बिजोला की प्रेम-ध्वनि तैरती है।
लेखक दो मतों को ईमानदारी से साथ रखते हैं— वरिष्ठ पत्रकार शीशपाल गुसाईं के अनुसार बिजोला राजगढ़ी-निकट डख्याट गाँव की कन्या थीं; बाड़ाहाट मेले में नरू से प्रेम, फिर गंगा–यमुना घाटियों के बीच सम्मान और प्रतिद्वन्द्विता का टकराव।

साहित्यकार दिनेश रावत के मत में नरू–बिजोला असल में नरदेव–विजेन्द्र देव, तिलोथ के वीर भड़ थे—जिनकी प्रेम और पराक्रम-गाथा आज भी लोकगीतों में जीवित है।
रावत दोनों परम्पराओं को समुचित स्थान देते हैं: लोक समय के साथ रूप बदलता है, पर उसका सांस्कृतिक सत्य अक्षुण्ण रहता है। यही लोक-स्मृति बाड़ाहाट और ज्ञानसू को अमर करती है।

हिमालय: भूगोल नहीं, चेतना का मानचित्र

कृति में हिमालय नायक है—भू-आकृति से परे चेतना, करुणा और जिजीविषा का प्रतीक। लद्दाख के मठों का ध्यान-नाद, कश्मीर की झीलों का शान्ति-लोक, सिक्किम की सफाई-संस्कृति, दार्जिलिंग की यूनेस्को धरोहर रेल, हिमाचल के रौनकदार गाँव और उत्तराखंड के उजड़ते आँगन—सभी मिलकर एक जीवित सांस्कृतिक कैनवास रचते हैं। लेखक बार-बार याद दिलाते हैं—प्रकृति के बिना विकास अधूरा है; संवेदना के बिना विकास निष्ठुर।

सामाजिक दृष्टि और पर्यावरण-नैतिकता

पुस्तक पलायन और बंजर होते खेतों की पीड़ा को संजीदगी से दर्ज करती है। समाधान-सूत्र में सांस्कृतिक-सम्बलित पर्यटन, स्थानीय उत्पादों और लोक-कलाओं के पुनरुद्धार का प्रस्ताव है—इंदौर के “चोखी ढाणी” मॉडल को लोक-आध्यात्मिक भूगोल के अनुरूप उत्तराखंडीय संस्करण देने की संकल्पना के साथ। यहाँ रावत का स्वर रोमानी नहीं, उत्तरदायी है—नीतिनिर्माताओं और समाज के लिए नैतिक आह्वान।

साहित्यिक मूल्य और प्रभाव

यह कृति हिंदी यात्रा-साहित्य की परम्परा में समकालीन शिखर-ग्रंथ के रूप में दर्ज होने योग्य है—जहाँ संस्मरण रिपोर्ताज से गहरा, और आत्मान्वेषण दर्शन से जुड़ा है। रावत की भाषा में लोक-सरलता और विचार-गाम्भीर्य साथ-साथ चलते हैं। पुस्तक पर्यटन-वर्णन से आगे जाकर पर्यावरण-न्याय, सांस्कृतिक अधिकार, और सामुदायिक स्मृति जैसे प्रश्न उठाती है—इसीलिए यह साहित्यप्रेमियों, शोधार्थियों, नीति-निर्माताओं और पर्यावरण-समुदाय—सभी के लिए समान रूप से उपयोगी है।e

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