
उत्तराखंड के युवा और निडर पत्रकार राजीव प्रताप सिंह की संदिग्ध परिस्थितियों में हुई मौत न सिर्फ एक व्यक्ति की दुखद समाप्ति है, बल्कि यह घटना उस पूरे तंत्र पर गंभीर प्रश्नचिह्न खड़ा करती है, जिसे लोकतंत्र का चौथा स्तंभ कहा जाता है। जिस पत्रकार ने हाल ही में एक सरकारी अस्पताल में कथित भ्रष्टाचार को उजागर किया था, उसका अचानक लापता होना और फिर मृत अवस्था में पाया जाना मात्र एक “दुर्घटना” भर कैसे माना जा सकता है?
पुलिस ने पोस्टमॉर्टम रिपोर्ट के आधार पर इसे सड़क दुर्घटना बताया है। रिपोर्ट में मारपीट के निशान न होना और आंतरिक चोटों का जिक्र किया गया है। लेकिन यह तर्क स्थानीय जनता, पत्रकार समुदाय और विपक्ष के नेताओं को आश्वस्त नहीं कर सका। राहुल गांधी सहित कई नेताओं ने इसे षड्यंत्र की संज्ञा दी है और निष्पक्ष जांच की मांग की है। प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष करण माहरा ने तो सीबीआई जांच की मांग उठाकर साफ कर दिया है कि इस मौत को केवल दुर्घटना कहना शायद सच्चाई से मुंह मोड़ना होगा।
लोकतंत्र में असहज होती पत्रकारिता
यह घटना उस गंभीर माहौल की प्रतीक बनती जा रही है, जिसमें आज ईमानदार पत्रकारों का काम करना खतरे से खाली नहीं है। जो पत्रकार सवाल पूछता है, सत्ता से जवाब मांगता है, उसे या तो चुप करा दिया जाता है, या रास्ते से हटा दिया जाता है। राजीव प्रताप सिंह का जाना उसी त्रासदी की एक और मिसाल है।
जांच से ही सामने आएगी सच्चाई
पुलिस महानिदेशक द्वारा जांच टीम का गठन किया जाना एक सही कदम है, लेकिन यह तब तक पर्याप्त नहीं माना जाएगा जब तक जांच पारदर्शी, निष्पक्ष और समयबद्ध न हो। सभी सीसीटीवी फुटेज, कॉल डिटेल्स, और अन्य इलेक्ट्रॉनिक साक्ष्यों की निष्पक्षता से जांच होनी चाहिए, ताकि न केवल परिवार को न्याय मिले, बल्कि पत्रकार बिरादरी का विश्वास भी बहाल हो।
सवाल अब सिर्फ मौत का नहीं, भरोसे का है
आज सवाल सिर्फ एक पत्रकार की मौत का नहीं है, बल्कि यह सवाल उठता है कि क्या हमारा लोकतंत्र अपने सबसे जरूरी स्तंभ—स्वतंत्र पत्रकारिता—की रक्षा कर पा रहा है? राजीव प्रताप की मौत यदि सिर्फ एक ‘हादसा’ है, तो इसे बिना किसी राजनीतिक दबाव के प्रमाणित किया जाना जरूरी है। और यदि इसमें कोई गहरी साजिश छिपी है, तो दोषियों को बेनकाब करना पत्रकारिता के साथ-साथ लोकतंत्र के प्रति हमारी सबसे बड़ी जवाबदेही है।